Friday 8 March 2013


अभी बदलाव बाकी है
पहली बार महिला दिवस २८ फरवरी १९०९ को मनाया गया था संयुक्त राज्य अमेरिका में। तब यह सिर्फ वहां का एक राष्ट्रीय दिवस था, जिसकी संकल्पना सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका ने की थी। धीरे-धीरे और भी देश इससे जुड़ते गए। सन्‌ सतहत्तर के बाद तो संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ८ मार्च का दिन इसके लिए तय ही कर दिया। एक ऐसा दिन, जब महिलाओं के अधिकारों की बात उठाई जाए, फिर उन्हें पूरे साल चलाया जाए। १९९६ से संयुक्त राष्ट्र कोई एक थीम भी देता आ रहा है, जिसके तहत उस पूरे वर्ष एकाग्रता से महिला अधिकार संबंधी उस खास विषय पर काम किया जा सके। महिलाएं और निर्णय के अधिकार, महिलाएं और मानवाधिकार, बराबरी का हक, हिंसा से मुक्ति, समान अवसर, महिलाओं पर निवेश, उन्नति का समान अधिकार आदि विषयों पर इसी नाते पिछले सालों में काम किए गए हैं। २०१२ की थीम ग्रामीण महिलाओं का सशक्तीकरण थी। इस साल की थीम है "वादा तो वादा है, इसे निभाना है", यानी महिलाओं के प्रति की जाने वाले हिंसा के निराकरण का वादा निभाना। 

भारतीय महिलाएं खुशकिस्मत हैं कि उन्हें देश और संविधान के साथ ही मताधिकार मिल गया। हमारा संविधान स्त्री-पुरुष को बराबरी का दर्जा देता है। मगर हमारी सामाजिक स्थितियां इस कागज पर लिखे को पूरी तरह सच साबित नहीं करतीं। हां, शहरी महिलाओं की स्थिति काफी बदली है, मगर इसे सतह पर तैरता मक्खन ही कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। धुर ग्रामीण हलकों में आज भी स्त्रियां डायन बताकर मार दी जाती हैं। उन तक शिक्षा का उजियारा नहीं पहुंचा है, लिहाजा वे अंधविश्वासों और रूढ़ियों से घिरी हैं। उनके पास निर्णय के अधिकार नहीं हैं। महिलाओं की उन्नति की बाहरी पहल से जो महिलाएं सरपंच बना दी गई हैं, उनमें से भी कई को घर में बैठाकर निर्णय उनके पति ही लेते हैं। हां, इस पहल की वजह से कुछ ऐसी महिलाएं जरूर सामने आई हैं, जिनका जुझारूपन यह अवसर मिले बिना पता ही न चलता। कस्बों की लड़कियां अब पढ़ने लगी हैं। शहरों में महिलाएं बड़े-बड़े पदों पर काम कर रही हैं। उन कामों में भी उन्होंने अपनी जबरदस्त पैठ बनाई है, जो पारंपरिक रूप से महिलाओं के क्षेत्र नहीं माने जाते थे। लेकिन भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों को लेकर अनेक पूर्वग्रह हैं, जो अभी मिटे नहीं हैं। औरत की अक्ल चोटी में होती है, जैसे मुहावरे अब भी उतनी ही ढिठाई और बेशर्मी से बोले जाते हैं। उनके पहनने-ओढ़ने, उठने-बैठने पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए जाते हैं। बहुत जगहों पर समान काम के लिए उन्हें पुरुषों से कम वेतन और शून्य श्रेय दिया जाता है। दहेज, कन्या भ्रूण हत्या और बलात्कार जैसे अपराधों के लिए भारत दुनिया भर में कलंकित हो चुका है। इनसे निपटने के लिए नए कानून लाने की तैयारियां भी हो रही हैं। मगर जब तक संपूर्ण समाज का रुख नहीं बदलता, जब तक हमारी मानसिकता नहीं बदलती, महिलाओं का बराबरी का इंसान समझे जाने का सपना अधूरा रहेगा।

1 comment:

  1. मित्र आपने हिँदी की शुद्धता के मामले मेँ तो तथाकथित कॉपी राइट धारक उ.प्र. बालोँ को भी पीछे छोड़ दिया। लिखा भी गज़ब है, तथ्योँ और विचारोँ का अद्भुत समन्वय...

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