Monday 18 March 2013


भाषायी अधिकारों पर प्रश्नचिंह


सिविल सेवा परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को दरकिनार कर अंग्रेजी का वर्चस्व कायम करने के संघ लोक सेवा आयोग के फैसले पर देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई. इस मुद्दे पर पिछले हफ्ते संसद में भी गतिरोध रहा. लगभग सभी ने इस पर नराजगी जताई. कड़े विरोध को देखते हुए कार्मिक राज्यमंत्री वी नारायणसामी ने ऐलान किया कि इस मसले का समाधान निकलने तक आयोग की नई अधिसूचना लागू नही की जायेगी.
दरअसल मामला तब भड़का जब संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में अंग्रेजी 100 अंक का कर दिया गया और इसमें प्राप्त अंक योग्यता निर्धारण में जोड़े जाएंगे. जबकि पहले अंग्रेजी में सिर्फ पास होना होता था. यही नहीम, किसी भी भारतीय भाषा को दशवीं तक के ज्ञान की अनिवार्यता को भी अधिसूचना से हटा दिया गया . यह निश्चित तौर पर भारतीय भाषाओं का अपमान है साथ ही साथ अंग्रेजी को तरजीह देने की कोशिश है. अंग्रेजी आज भी ग्रामीण छात्रों की कमजोरी रही है. इस अधिसूचना के लागू हो जाने से उनके सपनों पर ग्रहण लग जाता.
इस मुद्दे पर संसद में हिंदी के साथ-साथ तमिल सांसदों ने भी विरोध जताया. जयललिता पहले ही खत लिखकर इसका विरोध जता चुकी है.
आज अंग्रेजी का वर्चस्व इतना बढ़ गया है कि न्यायालय से लेकर प्रशासनिक कार्यों में अंग्रेजी का इस्तमाल होने लगा है. उच्च शिक्षा के साथ-साथ स्कूली शिक्षा में अंग्रेजी का बोलवाला बढ़ा है. एक लोकतांत्रिक देश में भाषायी अधिकारों को इस तरह दबाना औ फिरंगी भाषा को इस तरह तरजीह देना कितना उचित है?

Friday 8 March 2013


अभी बदलाव बाकी है
पहली बार महिला दिवस २८ फरवरी १९०९ को मनाया गया था संयुक्त राज्य अमेरिका में। तब यह सिर्फ वहां का एक राष्ट्रीय दिवस था, जिसकी संकल्पना सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका ने की थी। धीरे-धीरे और भी देश इससे जुड़ते गए। सन्‌ सतहत्तर के बाद तो संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ८ मार्च का दिन इसके लिए तय ही कर दिया। एक ऐसा दिन, जब महिलाओं के अधिकारों की बात उठाई जाए, फिर उन्हें पूरे साल चलाया जाए। १९९६ से संयुक्त राष्ट्र कोई एक थीम भी देता आ रहा है, जिसके तहत उस पूरे वर्ष एकाग्रता से महिला अधिकार संबंधी उस खास विषय पर काम किया जा सके। महिलाएं और निर्णय के अधिकार, महिलाएं और मानवाधिकार, बराबरी का हक, हिंसा से मुक्ति, समान अवसर, महिलाओं पर निवेश, उन्नति का समान अधिकार आदि विषयों पर इसी नाते पिछले सालों में काम किए गए हैं। २०१२ की थीम ग्रामीण महिलाओं का सशक्तीकरण थी। इस साल की थीम है "वादा तो वादा है, इसे निभाना है", यानी महिलाओं के प्रति की जाने वाले हिंसा के निराकरण का वादा निभाना। 

भारतीय महिलाएं खुशकिस्मत हैं कि उन्हें देश और संविधान के साथ ही मताधिकार मिल गया। हमारा संविधान स्त्री-पुरुष को बराबरी का दर्जा देता है। मगर हमारी सामाजिक स्थितियां इस कागज पर लिखे को पूरी तरह सच साबित नहीं करतीं। हां, शहरी महिलाओं की स्थिति काफी बदली है, मगर इसे सतह पर तैरता मक्खन ही कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। धुर ग्रामीण हलकों में आज भी स्त्रियां डायन बताकर मार दी जाती हैं। उन तक शिक्षा का उजियारा नहीं पहुंचा है, लिहाजा वे अंधविश्वासों और रूढ़ियों से घिरी हैं। उनके पास निर्णय के अधिकार नहीं हैं। महिलाओं की उन्नति की बाहरी पहल से जो महिलाएं सरपंच बना दी गई हैं, उनमें से भी कई को घर में बैठाकर निर्णय उनके पति ही लेते हैं। हां, इस पहल की वजह से कुछ ऐसी महिलाएं जरूर सामने आई हैं, जिनका जुझारूपन यह अवसर मिले बिना पता ही न चलता। कस्बों की लड़कियां अब पढ़ने लगी हैं। शहरों में महिलाएं बड़े-बड़े पदों पर काम कर रही हैं। उन कामों में भी उन्होंने अपनी जबरदस्त पैठ बनाई है, जो पारंपरिक रूप से महिलाओं के क्षेत्र नहीं माने जाते थे। लेकिन भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों को लेकर अनेक पूर्वग्रह हैं, जो अभी मिटे नहीं हैं। औरत की अक्ल चोटी में होती है, जैसे मुहावरे अब भी उतनी ही ढिठाई और बेशर्मी से बोले जाते हैं। उनके पहनने-ओढ़ने, उठने-बैठने पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए जाते हैं। बहुत जगहों पर समान काम के लिए उन्हें पुरुषों से कम वेतन और शून्य श्रेय दिया जाता है। दहेज, कन्या भ्रूण हत्या और बलात्कार जैसे अपराधों के लिए भारत दुनिया भर में कलंकित हो चुका है। इनसे निपटने के लिए नए कानून लाने की तैयारियां भी हो रही हैं। मगर जब तक संपूर्ण समाज का रुख नहीं बदलता, जब तक हमारी मानसिकता नहीं बदलती, महिलाओं का बराबरी का इंसान समझे जाने का सपना अधूरा रहेगा।

Wednesday 6 March 2013

एक और घोटाला का अंकुरण

यूपीए सरकार के घोटालों की लंबी फेहरिस्त में अब किसान कर्ज माफी घोटाला भी जुड़ गया है। २००९ के आम चुनाव के पहले मनमोहन सरकार ने किसानों के ५२ हजार करोड़ रुपए के कर्ज माफ किए थे। अब कैग की जांच-पड़ताल में पाया गया कि इस कर्ज माफी योजना में अपात्रों के कर्ज को माफ कर दिया गया और कई पात्र लोगों को इस योजना का लाभ नहीं मिला। कैग की नमूना जांच के आधार पर माना जा रहा है कि इसमें लगभग १० हजार करोड़ रुपए का घोटाला हुआ है। राजनेताओं व बैंकों के अधिकारियों की मिलीभगत से उन लोगों के भी कर्ज माफ कर दिए गए, जिन्होंने वाहन खरीदने या घर बनाने के लिए कर्ज लिया था। कर्ज माफी की योजना देश के उन जिलों में लागू की गई थी, जहां कर्ज के बोझ में डूबे किसान आत्महत्या कर रहे थे। कैग ने पाया कि बैंकों के पास दस्तावेजी रिकॉर्ड भी मौजूद नहीं हैं, जिनके आधार पर कर्ज माफ करने का निर्णय लिया गया। कैग को उपलब्ध कराए गए कई दस्तावेजों पर लिखे आंकड़ों में फेरबदल किया गया था। कई लोग कर्ज माफी के लिए निर्धारित मानदंडों को पूरा नहीं करते थे। यूपीए लोकसभा चुनाव जीतने के लिए इस कदर कमर कसे हुए था कि अपात्रों को भी कर्ज माफी का लाभ दे दिया गया। कैग की रिपोर्ट में हुए खुलासे के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना अनुचित नहीं होगा कि इस घोटाले में राजनेताओं व बैंक अफसरों की संलिप्तता रही होगी। दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए निजी व्यावसायिक बैंकों के कर्जदारों के कर्ज भी माफ कर दिए गए। वित्त मंत्रालय के वित्तीय सेवा विभाग ने बिना किसी दस्तावेजी प्रमाण के अरबन कोऑपरेटिव बैंक से जुड़े ३३५ करोड़ रुपए की कर्ज माफी का दावा मंजूर कर लिया। कैग की रिपोर्ट ने वित्त मंत्रालय को कठघरे में खड़ा कर दिया है। संसद में विपक्षी दलों की यह मांग पूरी तरह जायज है कि कैग की रिपोर्ट को आधार बनाकर इस घोटाले की सीबीआई जांच कराई जाए। संसद की लोकलेखा समिति इस घोटाले के आपराधिक पहलुओं की जांच करने में सक्षम नहीं है। यदि मनमोहन सरकार ने इस घोटाले की लीपापोती करने की कोशिश की तो उसे भारी राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ेगा। सरकार के सामने विश्वसनीय जांच कराने का आदेश देने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।