Monday 22 April 2013

दिल्ली फिर शर्मसार
चार महीने पहले दिल्ली में चलती बस में एक युवती के साथ बर्बर तरीके से हुए सामूहिक बलात्कार के बाद देशभर में व्यवस्था के खिलाफ लोगों का जैसा गुस्सा फूटा था, वैसा ही एक बार फिर नजर आ रहा है। यह अजीबोगरीब संयोग ही है कि जिस दिन देश की राजधानी दिल्ली को सरकारी स्तर पर "दिलदार दिल्ली" की नई पहचान दी गई, उसी दिन दिल्ली को दागदार बनाने वाली एक और वीभत्स व रोंगटे खड़े कर देने वाली वारदात को अंजाम देते हुए एक पांच वर्षीय मासूम बच्ची को दुष्कर्म का शिकार बनाया गया। दुर्भाग्य से देश के बाकी हिस्सों की स्थिति भी दिल्ली से अलग नहीं रही। मध्य प्रदेश के सिवनी और दतिया, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर तथा महाराष्ट्र के नागपुर में भी पांच से सात वर्ष की चार बच्चियों को इसी तरह दरिदंगी भरे दुष्कर्म का शिकार बनाया गया। चार महीने पहले दिल्ली में हुई सामूहिक बलात्कार की वारदात ने देश में कानून-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त बनाने की जरूरत के साथ ही महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों को रोकने के लिए सख्त कानून और पुलिस सुधार की जरूरत को भी शिद्दत से रेखांकित किया था। सरकार ने सख्त कानून बनाने की पहल तो की, लेकिन पुलिस सुधार की दिशा में कुछ नहीं हुआ और इसके लिए कोई एक पार्टी या सरकार नहीं, हमारी समूची राजनीति दोषी है। यही वजह है कि पुलिस का अमानवीय चेहरा हर बार की तरह इस बार भी अपने डरावने अंदाज में सामने आया। दिल्ली, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की ताजा घटनाओं ने इस बात को भी गहराई से रेखांकित कर दिया है कि इस समस्या का इलाज कानूनों को सख्त बनाकर ही नहीं किया जा सकता। दरअसल अबोध बच्चियों के साथ दुष्कर्म की ये घटनाएं बीमार मानसिकता की उपज हैं और इस मनोरोग को फैलाने में टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन और सीरियल सहित कई कारक अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं। अफसोस और हैरानी की बात यह भी है कि हमारे समाज में मनोरोगियों को उस तरह से रोगी माना ही नहीं जाता, जिस तरह दूसरे रोगियों को माना जाता है। इसलिए ये घटनाएं समाज से अपने गिरेबां में झांकने की मांग भी करती हैं।