हम युवा का विवाह जब अपने से इतर जाति की प्रेमिका से नही होता है तो हम रोते-बिलखते हैं. उसकी बिछड़न की दुख में मरने को तैयार रहते हैं. ऐसे में जाति बड़ा या प्रेम? फिर हम जातिगत राजनीति में सक्रिय क्यों है?
जातिवाद के अंतर्दंद
में युवा
अभिमन्यु कुमार
लगता है
जाति और धर्म का दंश अगली पीढ़ी को भी झेलना पड़ेगा. मन में 440 वोल्ट के सामान उर्जा थी कि हम युवा देश
को बदल देंगे लेकिन समकालीन युवा को जातिगत ओछी राजनीति करते देख मेरी उर्जा 12 वोल्ट की हो जाती
है. अगर हम युवा ऐसी ही विचारधारा की नैया खेते रहेंगे तो अगली पीढ़ी भी जातिवाद
के समंदर में डूब जायेगी.
देश में कई
ऐसे उदाहरण पड़े हैं जिसमें ‘दलित नेता’ और ‘लाल नेता’ सत्ता प्राप्ति
के बाद उसके सुख की हरियाली में इतने खो जाते हैं कि लाल और ब्लू रंग की विचारधारा
गायब हो जाती है. बात साफ़ है कि जाति रुपी मोहरे को इसलिए जीवित रखा जाता है ताकि अपनी व्यक्तिगत
मंशा को पूरा किया जाए. वे नोट की माला पहनते हैं. वे फाईव स्टार जन्मदिन मनाते
हैं. और जो टुट-पुंजिया नेता हैं, जो इस तरह की चाहत रखते हैं वे दलित
शब्द को साध्य और युवाओं को साधन बनाकर अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा साध रहे हैं. वे
प्रेम रुपी महत्वकांक्षा से इनके कोरे मन को धोते हैं. फिर इतिहास की हड्डियां
नोचते हैं और उनके मन में इस बात को घर कर देते हैं कि जातिगत राजनीति से ही उनका
उद्धार संभव है. वे इनके जरिये अपनी विचारधारा को लोगो तक पहुंचाते हैं और इनके
कंधे पर बंदूक रख कर अपनी मंशा पूरी करते हैं. आश्चर्य की बात यह है कि हम समझदार
युवा भी इनके चंगुल में फंस जाते हैं.
आज बुरे वक्त में जब अपने भी साथ छोड़ देते हैं तो इन नेताओं का प्यार
कितना प्रासांगिक है. यह बड़ा प्रश्न है.
कुछ दिन पहले मेरे एक दलित दोस्त ने एक ऐसे ही सम्मोहित दलित युवा की
विचारधारा में असहमति जताई तो उसने झल्लाते हुए मेरे दोस्त को कहा कि “ये नया ब्राह्मन
है.” क्या ‘दलित’ शब्द किसी की जागीर
है. इस वाकया से साफ संदेश मिलता है कि आज ‘दलित’ शब्द एक कौमोडिटी के रूप में इस्तेमाल
किया जा रहा है.

बात स्पष्ट है कि आज सत्ता लोभी नेता युवा को जातिवाद का टॉनिक इसलिए पिला
रहे हैं ताकि उनकी संकीर्ण राजनीतिक महत्वकांक्षा मजबूत
हो.
एक बात और मुझे आश्चर्य में डालता है कि जब हम युवा को अपने से इतर जाति की
प्रेमिका से प्रेम विवाह सफल नही होता है तो हम रोते-बिलखते हैं. उसकी बिछड़न की
दुख में मरने को तैयार रहते हैं. अब भाई साहब मुझे ये बताओ कि जाति बड़ा या प्रेम? अब क्या हम ये
चाहेंगे कि जिस दंश को हम झेले हैं या झेल रहे हैं उसे अगली पीढ़ी भी झेले? अगर हम इस
कुसंस्कृति को यहीं खत्म नही करेंगे तो आने वाला समय आज से भिन्न नही होगा. हमें
अपने भविष्य और इस तुच्छ राजनीति में से किसी एक को चुनना होगा. यही समय की
आवश्यकता है .
छात्र राजनीति में यथार्थ का सही चित्रण। लेकिन फिर भी हम अपने में मगन हैं।
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